Monday, October 25, 2010

'इतराई है पुरवाई..'




"उड़ी है ग़मों की चादर..
फिर से..
छाई है खुमारी..
फिर से..
इतराई है पुरवाई..
फिर से..

दे गया हवा नासूर..
फिर से..
ना सह सकूँगा गम-ए-जुदाई..
फिर से..

आना ही होगा..
पेशानी-ए-रूह..
मेरे महबूब..
फिर से..!!"

...

3 ...Kindly express ur views here/विचार प्रकट करिए..:

संजय भास्‍कर said...

सोचा की बेहतरीन पंक्तियाँ चुन के तारीफ करून ... मगर पूरी नज़्म ही शानदार है ...आपने लफ्ज़ दिए है अपने एहसास को ... दिल छु लेने वाली रचना ...

priyankaabhilaashi said...

धन्यवाद संजय भास्कर जी..!!

M VERMA said...

बहुत खूबसूरत एहसास और आह्वान है
रचना बहुत सुन्दर