Thursday, July 7, 2011

'चश्म-ए-अब्र..'




...


"बरसते हैं..
रूह की वादियों से.
नासूर..
जब कभी..
दफ़्न..
होते हैं..
फ़क़त..
चश्म-ए-अब्र..!!"


...

3 ...Kindly express ur views here/विचार प्रकट करिए..:

विभूति" said...

bhut khub....

Rakesh Kumar said...

आपकी दो रचना पढ़ी.मन आकर्षित हुआ और पढ़ने के लिए.आप की उर्दू पर अच्छी महारथ हासिल है.
लफजों का बहुत सुन्दर प्रयोग करतीं हैं आप.
एक अलग ही अंदाज में, जिसकी पहुँच सीधे रूह तक है.
आभार.

priyankaabhilaashi said...

धन्यवाद राकेश कुमार जी..!!!