Monday, October 17, 2011

'समाज..'




...


"सुलझ गयीं..
गांठें कितनी..
तेरी इक मुस्कराहट से..

व्यर्थ ही..
लुटती रही..
समाज के संकीर्ण फेरों में..!!"

...

5 ...Kindly express ur views here/विचार प्रकट करिए..:

SAJAN.AAWARA said...

EK MUSKAN BHI BAHUT KUCH KAH JAATI HAI....
BAHUT HI BADHIYAA RACHNA
JAI HIND JAI BHARAT

M VERMA said...

बहुत सुन्दर
मुस्कराहटो ने न जाने कितनी गाँठे सुलझा दी हैं

संजय भास्‍कर said...

वाह …………क्या खूब कहा है……………बहुत सुन्दर्।

priyankaabhilaashi said...

धन्यवाद मयंक साहब..!! आभारी हूँ..!!

priyankaabhilaashi said...

धन्यवाद संजय भास्कर जी..!!