Sunday, March 3, 2013

'वस्ल की तपिश..'



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"कितनी रातों से अधूरी थी..तेरी एक छुअन से नम हुई चाँदनी और सिमट गये बेशुमारे सितारे.. सिलवटें भी तरस गयीं थीं, वस्ल की तपिश के लिये..!!!"

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--ज़ालिम नज़ारे..बेचैन रातें..

'बेशुमार अब्र..'



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"दर्द अपना ना जाने क्यूँ दफ़ना दिया सरे-राह..सोचती थी बहुत हैं जो समझते होंगे हाल-ए-दिल..पर, हर दफा आपका सोचा सच हो..ऐसा नहीं होता..!!! फ़लसफ़ा-ए-ज़िन्दगी अजब रंगीली है..तलाशो जहाँ निशां, वहाँ रेत बहती नहीं हर अश्क के साथ..संग पे पैबंद बेशुमार अब्र, इक फटे तो दूसरा निभाये बेरुखी अपनी..!!"

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---कुछ दर्द अपने होते हैं..सिर्फ अपने..

'नक़ाबी मकां..'



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"फ़रेबी रिश्ते..नफ़रत भी थक गयी इन से नफ़रत करते-करते..!!! मेरी रूह पर उकेरे हैं जो नासूर तुमने, कभी ना मिटने पाये...इतनी दुआ अता करना, ए-ख़ुदा..!!!"

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---नक़ाबी मकां..खंज़र लपेटे इंसानी शरीर..