Tuesday, September 27, 2016

'मिस कॉल की गाँठ..'






#जां

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"मेरे जीवन के उपन्यास का कलेवर..

पृष्ठ संख्या ११६ पे अंकित..
वो सुनहरा पैगाम..

दृष्टिगत होती..
तुम्हारी नज़र..
खिलता-महकता..
'दिल धड़कने का सबब'..

यूँ तो पाँच साल..
और यूँ पूरी उम्र..

इक पल का सुकूं..
दूजे पे कसक..

पल-पल मुझे संवारना..
रेज़ा-रेज़ा दुलारना..
प्रेम के रूप हैं बहुत..

रोज़ माँगना..
इक गिरफ़्त..
रोज़ हारना..
ज़ालिम हुड़क..

कहो, कितने लफ्ज़ सजाऊँ..
सूती चादर के अलाव..
कितने 'लव-लैटर्स' करेंगे..
फ़ैसले पे बचाव..

३० दिन..१० लफ्ज़..
कुल जोड़ -- ३००..
पूरी हो..इस दफ़ा..
ये मुराद..

रातों के मोती..
मिस कॉल की गाँठ..
रोशन तुमसे..
मेरा दहकता ख्व़ाब..

मेरी अल्हड़ आवारगी..
तेरी कट्टर 'ना'..
आलिंगन..बोसे..
औ' वो बेबस रात..

मेरे केस की सुनवाई..
तेरी ही अदालत में..
मेरे ब्यान..
तेरी ही हिफाज़त में..!!"

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--डिमांड शुड बी इक्यूअल टू सप्लाई.. <3 = <3 है न, #जां..

Monday, September 26, 2016

'जिस्म..मुहब्बत वाला..'






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"दिनभर की भाग-दौड़ में..
उग आते हैं..
नाराज़गी के छोटे-छोटे फ़ाये..

बनते-बिगड़ते काम में..
झुलस जाते हैं..
मासूमियत के प्यारे साये..

छल-कपट के शोर में..
ठिठक जाते हैं..
हँसी के अल्हड़ पाये..

ओढ़ लेती है शब..
थक-हार के चादर..
मैं निकलता हूँ..
अपने जिस्म से..
तेरी रूह तक..

दूसरे प्रहर के ताने-बाने..
वो स्पेशल रतजगे..
तैरते सहर तक..
फ़िर पहन लेता हूँ..
जिस्म..मुहब्बत वाला..

बाँध कमीज़ पर..
निकल जाता हूँ..
उसी भाग-दौड़ में..
हवाले तुम्हारे जिस्म अपना..!!"

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'दहलीज़-ए-रूह..'








#जां

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"आज दिल मचल गया..
कुछ ऐसे..
थाम लो..
अपने आँचल जैसे..

बंधा रहूँ..
वक़्त-बेवक़्त..
कलाई पे..
तेरी घड़ी जैसे..

लटकता रहूँ..
साँस-दर-साँस..
दहलीज़-ए-रूह..
तेरी चेन जैसे..

कस लो गिरफ़्त..
दम निकले..
रेज़ा-रेज़ा..
तेरी आह जैसे..!!"

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--दिल धड़कने का सबब याद आया..

'शिखर..'





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"जीवन की तलाश में..
फिरता रहा..
कितने अधर..

प्रस्फुटित तेरे गर्भ में..
मेरा हर शिखर..

तू समय की धार..
मैं तेरा भँवर..!!"

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