Friday, January 15, 2021

'महफ़िल..'



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"सुकूँ के दरवाजे साकी खुले छोड़ गया..
जाने कौन रुका और क्या बह गया..

तुम मौलिक अधिकार का प्रचार करते रहे..
मेरा जुनून किस आँगन बिक गया..

किस्से बेशुमार सजे जिस शब..
नाम उसके ज़िंदगानी कर गया..

कैसे कहूँ कि तुम वो नहीं..देखो,
शिखर-ए-आज़ादी लुट गया..

महफ़िल दरीचों से झाँकती मिली..
शहादत-ए-साहिल वो आम कर गया..

बेचैनियाँ खामोश रहीं, जिस मोड़..
आगाज़-ए-मेला ठीक वहीं कर गया..

'भूल जा, जो हुआ सो हुआ'..
फ्रेज़ ये, गज़ब दाम कर गया..!!"

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4 ...Kindly express ur views here/विचार प्रकट करिए..:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...
This comment has been removed by the author.
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (17-01-2021) को   "सीधी करता मार जो, वो होता है वीर"  (चर्चा अंक-3949)    पर भी होगी। 
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
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हार्दिक मंगल कामनाओं के साथ-    
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सादर...! 
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
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anita _sudhir said...

सुंदर

Ankityadav said...

bhut hi badiya post likhi hai aapne. Ankit Badigar Ki Traf se Dhanyvad.