Friday, January 15, 2021

'महफ़िल..'



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"सुकूँ के दरवाजे साकी खुले छोड़ गया..
जाने कौन रुका और क्या बह गया..

तुम मौलिक अधिकार का प्रचार करते रहे..
मेरा जुनून किस आँगन बिक गया..

किस्से बेशुमार सजे जिस शब..
नाम उसके ज़िंदगानी कर गया..

कैसे कहूँ कि तुम वो नहीं..देखो,
शिखर-ए-आज़ादी लुट गया..

महफ़िल दरीचों से झाँकती मिली..
शहादत-ए-साहिल वो आम कर गया..

बेचैनियाँ खामोश रहीं, जिस मोड़..
आगाज़-ए-मेला ठीक वहीं कर गया..

'भूल जा, जो हुआ सो हुआ'..
फ्रेज़ ये, गज़ब दाम कर गया..!!"

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