Tuesday, August 16, 2011
'इश्क-ए-गुबार..'
...
"इश्क-ए-गुबार..जाने ना महबूब..
जिस रोज़ भूले क़यामत हुई..१..
बसे हो रूह में बन के धड़कन..
जिस रोज़ खिले नजाकत हुई..२..
आलम-ए-तन्हाई क्या जाने रकीब..
जिस रोज़ धूले बगावत हुई..३..
गम की आँधी चलती है तेज़ बहुत..
जिस रोज़ *जिले शरारत हुई..४..
दिखा दूं हूनर ना घबराना..वाईज़..
जिस रोज़ मिले हिमाकत हुई..५..!!"
...
*जिले = जले
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ग़ज़ल..
9 ...Kindly express ur views here/विचार प्रकट करिए..:
सार्थक लेखन .आभार
slut walk
धन्यवाद शिखा कौशिक जी..!!!
बसे हो रूह में बन के धडकन
जिस रोज खिले नजाकत हुई ....कितनी कोमलता है तुम्हारे इस शेर में ............वाह!!
गम की आंधी चलती है तेज बहुत
जिस रोज जिले शरारत हुई ...यह भी अच्छा लगा .
वाह!
आपको पढ़ने का अलग ही आनंद है।
सादर
धन्यवाद दी..!!
धन्यवाद यशवंत माथुर जी..!!
सुन्दर और सार्थक रचना...
आपका लिखने का एक अलग ही अंदाज़ है... जो आपको सबसे अलग कर देता है... बहुत ही सुन्दर...
best
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