Sunday, August 31, 2014
'रेशे-दर-रेशे..'
...
"जिंदा रखना मुमकिन नहीं जहाँ..
इस भाग-दौड़ भरी ज़िन्दगी में..
तुमने पहने रखा जाने कैसे..
इन हर्फों के ताबीज़ को..
जानती हो..
सुर्ख रंग भी स्याह-सा लगता है..
जब छू जाती है..
कलम कागज़ से..
बिखर जाते हैं..
रेशे-दर-रेशे..
उसके लिहाफ में..
मुझे पाना आसां नहीं..
भूलना..हां'..कोशिश ये भी ज़ाया होगी..
पलटोगे पन्ने मेरे बाद..
पाओगे हर शै क़ाबिज़..
वज़ूद पे अपने..
ज़िंदा रहूँगी..
दूर होकर भी..
फ़क़त बदल लेना..
लिंबास हर पल चाहे..!!"
...
--जिसे चाहा..सजदे किये.. जिसे माना..उसके लिए..
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ज़मीनी हकीक़त..
5 ...Kindly express ur views here/विचार प्रकट करिए..:
आपकी लिखी रचना मंगलवार 02 सितम्बर 2014 को लिंक की जाएगी........
http://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
धन्यवाद यशोदा अग्रवाल जी..!!
सादर आभार ..!!
Lovely..
मुश्किल है भूलना ऐसे में उनको जो छायें हों हर इस कदर ...
धन्यवाद पारुल जी..!!
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