Monday, October 13, 2014
'शुक्रगुज़ार हूँ..'
...
"कितनों को देते हैं आप..दिशा..
कभी थकी-हारी जो आती हूँ..
फैला देते हैं..आँचल वात्सल्य-भरा..
अब जो कहूँगी..
'शुक्रगुज़ार हूँ..'
नाराज़ हो जायेंगे..
कहाँ किसी को यूँ ही कह पाते हैं..राज़ अपने..
जाने कैसे बंध जाते हैं..रिश्तों से सपने..
मेरी खुरदुरी लकीरों को..
कोमल स्वरों से सहलाते हैं..
बस चलते रहना का ही..
दम भराते जाते हैं..
निशब्द हूँ..
यूँ ही रहना चाहती हूँ..
आज फिर..
तेरे आँचल में सोना चाहती हूँ..!!"
...
Labels:
दास्तान-ए-दिल..
4 ...Kindly express ur views here/विचार प्रकट करिए..:
sometimes your words create magic...
soulful... pure...
शुक्रिया पारुल जी..!!!
बहुत खूब ... बहुत कुछ कहने की जरूरत ही कहाँ ...
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