प्यारे साहेब,
दिल के रेले ही हैं जो यहाँ -वहाँ बिखरे मिलेंगे, हिसाब-किताब के जद्दोजहद में डूबे मिलेंगे.. किरचों से उठता धुआँ, सितारों से रिसता आकाश..कितनी तन्हाई है इस बेवक़्त की तन्हाई में..
साहेब, आप मेरे सब सवालों के जवाब जानते हैं न...आपके होने से मन स्वच्छन्द हो उड़ता जैसे
नवीन पुष्पगुच्छ देख बाँछें खिलना तय.. इस रेशम-से लफ्ज़ो के जाल में मेरा वजूद..
आपने अब तक कुछ बताया नहीं कि मेरे यहाँ होने से क्या मुमकिन है मेरी तलाश..??
क्या पढ़ा आपने मेरे मस्तिष्क से हृदय तक जातीं रेखाएँ??
क्या मेरी उपमाओं में देखा आपने स्वयं का किरदार?
क्या इन ख़तों से उग आए आपके आँगन में सितारों वाले गुल??
क्या आपकी हथेलियों पर महकता मिला ओध?
क्या ख़ुमारी की झालर मिली आपकी चौखट पर?
क्या सुरों ने खींची इन्द्रधनुष की कोई कृति ??
इक धीमी आँच पर पकता मेरे तिलिस्म, मेरी मोहब्बत, मेरे जुनूँ, मेरे अक्स का गाढ़ा रंग..
शुक्रिया साहेब, मुझे यूँ ही स्वीकार करने का.. मुझे जज न करने की फेरहिस्त से बाहर रखने का.. मुझे 'मैं' होने देने का.. इस दिल को सही मायने में धड़कने देने का…
कितने विरले होते हैं न आप जैसे मेरे साहेब.. शुक्रिया सही मायने में मेरे 'लाइटहाउस' होने का..❣️
--#प्रियंकाभिलाषी

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