Tuesday, July 26, 2011
'सुना था..'
...
"सुना था..
निशां पैरों के..
मिटते नहीं..
मंज़र रूह के..
सुलगते नहीं..
किस्से मोहब्बत के..
बदलते नहीं..
कुछ रोज़ हुए..
मेरे आँगन..
तारे टिमटिमाते नहीं..
आफ़ताब लुटाता नहीं..
अपनी हंसी..
माफ़ी की अर्जी..
लगा आई हूँ...
फ़क़त..
आज फिर..
ज़मीर अपना..
दफ़ना आई हूँ..!!!"
...
Labels:
ज़िन्दगी..
13 ...Kindly express ur views here/विचार प्रकट करिए..:
बेहतरीन अंदाज में सुन्दर रचना .
पसंद आया यह अंदाज़ ए बयान आपका. बहुत गहरी सोंच है
धन्यवाद अमृता तन्मय जी..!!!
hamesha ki tarah super...
अच्छा है ...ज़मीर को दफना दिया...अपनों को जाने नहीं देना चाहिए...माफ़ी मांग के मना लेना चाहिए
sunder...
सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ
धन्यवाद sm जी..!!
बहुत बढिया प्रस्तुति
बेहतरीन अंदाज में सुन्दर रचना .
आपको मेरी हार्दिक शुभकामनायें.
लिकं हैhttp://sarapyar.blogspot.com/
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धन्यवाद नीरज जाट जी..!!!
धन्यवाद vidhya जी..!!!
धन्यवाद दिलबाग विर्क जी..!!!
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