"इस रूह से उठा..
उस रूह चला..
फ़ासले पाटता कैसा गिला..
जो तुम नहीं कोई ख्वाइश कहाँ..
मैं दीवाना..आवारा..
दश्तो-सहरा बिखरता रहा..
चल उठायें तम्बू की कीलें..
जाने कबसे पुकारती जिस्मों की रीलें..!!"
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बहुत सुन्दर
धन्यवाद यशवंत जी..!!
सादर आभार..!! देरी के लिए क्षमा..!!
धन्यवाद ओंकार जी..!!
धन्यवाद पारुल चंद्रा जी..!!
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