Sunday, April 19, 2015
'जागीर..'
...
"इक आखिरी काश..इस रात का..
इक आखिरी जाम..इस बात का..
मोहब्बत के जिस्म थे..
इबादत की रूह..
छिला जो हाथ..
कोशिका मेरी थी..
मैं लिखता हूँ दर्द..
ख़फ़ा वो हो जाते हैं..
मैं कहता हूँ मर्ज़..
जफ़ा वो कर जाते हैं..
तुम बेबस हो..
मैं नहीं..
तुम शामिल हो..
मैं नहीं..
तह-दर-तह जमाता हूँ..
ज़िन्दगी के सफ़हों की..
सुनी क्या सरसराहट..
दिल धड़कने की..
बेच सकोगे जागीर अपनी..
भरी है हर कोने में..
यादें अपनी..
दुआ करूँगा..
कामयाबी की..
चादर ओढ़ना..
*आबादी की..!!"
...
--तनहा सफ़र का एक पड़ाव..
*आबादी = आबाद..
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बेज़ुबां ज़ख्म..
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