ख़त - ४३
प्यारे साहेब,
आमद कुछ यूँ हुई गुलाबी जाड़े में लफ्ज़ों की.. के वक़्त की पेशानी पर उकेरे गए बेनाम-से नाम कई..
और उसने कहा, "सुनो, तुम लिखा करो। यूँ खुद से मिलने का एक रास्ता तो नक्की रहे!"..
कितनी दफ़ा चलते हुए पा लेता है यह दिल मुक़ाम और कितनी रातें बेवज़ह ठहर जाता है मन का सामान.. उस रात चाँदी बिखरी थी हर ओर, चाँद वाली..पूरे शबाब पर था आसमां और सितारों की बज़्म.. कबसे जाना था उस राह, जहाँ सजा-धजा था शामियाना और मन की ख़्वाहिशें करीने से हर मसन्द पर टेक लगाए बैठीं थीं..
जैसे संगोष्ठी से आमंत्रण पत्र प्राप्त हुआ हो,
"प्रिय सुधीजन,
'फरमाइशों के दौर में इक काविश अपनी भी हो..
पढ़िए कुछ ऐसा के इक तपिश सजी-सी हो..!!'
आपसे रूबरू होने को बेताब चमकते उपग्रह!!"
अन्तर्मन के तहखाने 'सुकूँ' की चाह में बीतते नहीं, उनमें दाखिल होता है सुर्ख़ स्याही से लिखा दस्तावेज.. और उगता जाता है घने पेड़ों से गहरा टापू..
मेरा रंगरेज़ कुछ अरसे से छुट्टी पर है, सो अनछुए रंग घट-बढ़ रहे.. इनका माप कभी गाढ़ा हो रोशनी से रत्ती भर जगाता, तो कभी मेढ़ पर ही मौलिक अधिकारों का विवरण करता..
प्यारे साहेब, जाने कौनसी यात्रा से मन तरंगित होगा, जाने कौनसा कमल अंतस में ऊष्मा का संचार करे.. 'समंदर' तो ख़ैर आपका अपना है, पर यह 'स्वप्निल समंदर' कहाँ भटका रहा.. आपसे वार्तालाप न हो पाने से मेरा 'आंतरिक समंदर' कम्पित हो उठता है.. प्रश्नों के बीज कहाँ-कहाँ छोड़ आती हूँ, रात्रि को मन के आलेख हिसाब माँगते हैं..
कभी तरल, कभी आत्मीय, कभी कठोरतम, कभी निष्ठुर..सब परीक्षा के संस्करण हैं, साहेब.. जीवन के औज़ार क़दम-क़दम सामर्थ्य-पान करते रहें, लौ और प्रेम दमकते रहें, पुष्पहार महकते रहें..
सुनहरी, नारंगी, हरी, पीली, मटमैली सूक्ष्म संवेदनाएँ पाएँ उपाधि और उपमाएँ..
स्नेह बरसता रहे, सदैव..
--#प्रियंकाभिलाषी
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