Saturday, November 27, 2010
'रूह का हिसाब..'
...
"ढूँढता हूँ..
सेहरा की रौशनी में..
शहद की खुशबू में..
साहिल की दीवानगी में..
गुल की हरारत..
फिज़ा का गुंचा..
शब की चिंगारी..
रूह का हिसाब..
ना मर सकूँगा..
फिर..
तुझसे बिछड़ने की मौत..!"
...
Labels:
दास्तान-ए-दिल..
2 ...Kindly express ur views here/विचार प्रकट करिए..:
शब्द तो साहब आप छांट छांट कर चुनते है, हमारी राय ये है की सोच को थोडा आसान कर लें तो आप जो कहना चाहते है, उसको सरल शब्दों में भी कह पाएंगे और ज्यादा लोग भी आपकी रचना से इत्तेफाक रख पाएंगे ...
लिखते रहिये ...
धन्यवाद मज़ाल जी..!!
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