Tuesday, November 6, 2012
'नशीली कोशिकाएँ..'
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आज सुबह, नहीं पिछली दो रातों, से तेरा साथ जैसे और करीब लाने को बेकरार कर रहा है.. सिमटना चाहती थी तेरी बाँहों में, पर वक़्त ने बंदिश लगा दी.. मजबूरी का लिहाफ़, दुनिया की रिवायतें, जिस्म की थकावट..आखिर कब तक रोक सकेगी वस्ल-ए-रात.. तेरी इक छुअन का एहसास कब से धधक रहा है, तेरे होंठों की नमी कब से तलाश रही हैं गुलाबी बदन की नशीली कोशिकाएँ..
अभी बाईस दिन बाकी हैं..और बाकी है 'एक रात' जब मैं खुद को तेरे हवाले कर दूँगी..तुम लिखोगे ना मेरे लिए वो 'कविता' जिसका बरसों से इंतज़ार कर रही हूँ.. बहुत करीब आ जाना भूला सारी दुनिया, मेरे राज़दां..
आज सुबह से उदासी के बादल तेरे मेरे रिश्ते की छत पर डेरा जमाये बैठे हैं, कहाँ गया वो आवाज़ का जादू.. तरस गयी हूँ वो सब सुनने को...आओ ना मेरी जां...मुझे थाम लेने को, करीब आ बाँहों में कसने को..
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कहानी..
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सुन्दर रचना
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