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"ज़िन्दगी की एक किताब..
मेरे राष्ट्र के नाम..
भ्रष्टाचार..छल-कपट..
हर सेवक का व्यापार..
अपनी झोली भरते जाते..
झूठे वादे हमसे निभाते..
काला धंधा जिनका थोर..
बटोरते धन हर ओर..
नित नये व्यक्तव्य सुनाते..
अमल कभी न कर पाते..
कौन सुने जनता की पीड़ा..
हर कान जड़ा जो हीरा..
खाद्य-सुरक्षा कैसी योजना..
बंद करो घाव कुरेदना..
आखिर कब तक जालसाजी..
बहुत हुई ये मनमानी..
नहीं रुकेंगे..नहीं झुकेंगे..
तस्करों से नहीं डरेंगे..
अधिक अन्धेरा छा गया..
आम आदमी जाग गया..
संभल जाओ..ए-नादानों..
ढोओगे पत्थर-पत्थर खादानों..
कर दो समर्पण जो चुराया..
देगी भारत-माँ माफ़ी की छाया..
स्नेह से जो गद्दारी हुई..
स्वाँस तुम्हारी भारी हुई..!!"
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