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"आसूँ जो बहते हैं..नज़र नहीं पाते..
मेरे घर सैलानी परिंदे नहीं आते..१..
आया करो..फ़क़त बाँध गमे-गठरी..
सुनो..दिन गिरफ़्त के रोज़ नहीं आते..२..
जानता हूँ..साज़िशें औ' क़वायद उनकी..
नक़ाब पे उल्फ़त वाले रंग नहीं आते..३..
गुलज़ार रहे ताना-बाना..सुर-ताल के..
क़द्रदान..नमकीं समंदर में नहीं आते..४..!!!"
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--रॉ स्टफ..
12 ...Kindly express ur views here/विचार प्रकट करिए..:
हर शेर उम्दा ...
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (01-06-2015) को "तंबाखू, दिवस नहीं द्दृढ संकल्प की जरुरत है" {चर्चा अंक- 1993} पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
धन्यवाद मोहन सेठी 'इंतज़ार' जी..!!
सादर आभार मयंक साब..!!
वाह
वाह वाह वाह
हर शेर जुदा अंदाज़ का ... बहुत उम्दा ...
बहुत ख़ूब
हार्दिक धन्यवाद..सुशील कुमार जोशी जी..!!
हार्दिक आभार..रचना दीक्षित जी..!!
हार्दिक धन्यवाद..दिगंबर नास्वा जी..!!
हार्दिक धन्यवाद..हिमकर श्याम जी..!!
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