Monday, May 3, 2010
'रंजिश का शामियाना..'
...
"देहलीज़ से उठे नैन..
ना जाने क्यूँ थे बेचैन..
सफ़र की थकान थी..
या..
सपनों का आशियाना..
साँसों की खलिश थी..
या..
रंजिश का शामियाना..
क्या दरिया बाँध सकूँगा..कभी...
क्या काज़ल मिटा सकूँगा..कभी..
क्या माज़ी भुला सकूँगा..कभी..!"
...
8 ...Kindly express ur views here/विचार प्रकट करिए..:
उम्दा प्रस्तुती !!!! विचारणीय रचना !!!!!
बढ़िया सोच!
bahut khub
धन्यवाद ओनेस्टी प्रोजेक्ट डेमोक्रेसी जी..!!
धन्यवाद उड़न तश्तरी जी..!!
धन्यवाद शेखर कुमावत जी..!!
फिर से प्रशंसनीय रचना - बधाई
धन्यवाद संजय भास्कर जी..!!
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