Saturday, July 17, 2010

'ख़ाक-ए-गर्द..'


...

"समेटती हूँ..
आवारा साँसों को..
अक्स धुंधला हो जाता है..

लपेटती हूँ..
आगोश जिस्मों की..
आसमां नीला हो जाता है..

सहेजती हूँ..
बेबाक यादों को..
दरिया बेमाना हो जाता है..

ढूंढो जोर-ए-सितम..
ख़ाक-ए-गर्द..
मेरा अंजाम हो जाता है..!!"

...

4 ...Kindly express ur views here/विचार प्रकट करिए..:

Sunil Kumar said...

एक सुंदर रचना , बधाई

संजय भास्‍कर said...

बेहद ख़ूबसूरत और उम्दा

priyankaabhilaashi said...

धन्यवाद सुनील कुमार जी..!!

priyankaabhilaashi said...

धन्यवाद संजय भास्कर जी..!!