Monday, August 13, 2012
'झूठ की गठरी..'
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"मैं मंत्रमुग्ध हो सुनती रही..तुम्हारे हर झूठ की गठरी का भार सहती रही..हर शब्द गंगा-सा पवित्र मान ह्रदय की सूखी डाल पर छिड़कती रही..!!!
तुम भी ठहरे राजनीतिज्ञ, आखिर मेरे कोमल भावों को तोड़ गए..सूक्ष्म तंतुओं का ह्रास कर गए..कर ही गए कलुषित मेरी पावन धरती को, बसते थे जिसमें जीवन-राग..!!!! अब तुम ही कहो, कैसे बांधूंगी घुंघरूं को पायल और कैसे जड़ पाऊँगी कुंदन को तुम्हारी आँखों के पोर पर..??
याद है ना..हर साँझ चमचमाता था तुम्हारी आँखों में मेरी नथनी का हीरा और विस्मय से भर जाता था तुम्हारा चेहरा..!!! खिलखिलाती थी सरसों की खली और महकती थी कनक की हंसी..!!
आज सब ओझल है..विस्तृत हो चला है तुम्हारे तहस-नहस करने का अधिकार..!!!!
जो शेष..वो मेरा टूटा-फूटा अस्तित्व और कुछ अनमोल आँसू, जिनका दाम तुम लगा ना पाए..ए-मेरे रत्नों के व्यापारी..!!"
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कहानी..
6 ...Kindly express ur views here/विचार प्रकट करिए..:
रत्नों का व्यपारी था आखिर !
बेहतरीन !
जब तक अस्तित्व है ... जीवन है ... कोई कुछ नहीं कर सकता ... सार्थक रचना ...
प्रभावशाली ...
धन्यवाद वाणी गीत जी..!!
धन्यवाद दिगम्बर नास्वा जी..!!
धन्यवाद सतीश सक्सेना जी..!!
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