Thursday, November 28, 2013
'ओढ़ लें..'
...
"मेरी जां..
तुमसे ही सुबह होती है..
तुमसे ही शाम..
जिस दिन सोचूँ..न करूँ परेशां..
उस दिन ही होते हो..
तुम सबसे ज्यादा परेशां..
ऐसा क्या है हम दोनों के बीच..
लेता है रंग जो स्याह अंधेरों के बीच..
पहर सारे रात-भर रोशनी मंगातें हैं..
हमसे गरमी के सारे अलाव जलाते हैं..
सूत की चादर और सिलवटों के लिहाफ़..
सजाते हैं हमसे..उल्फ़त के खिताब..
पोर से रिसते बेशुमार टापू..
सीखा हमसे है होना बेकाबू..
आज़ादी का जश्न तेरी बाँहों में..
गिरफ़्त का सुकून तेरी आहों में..
राज़ तेरे-मेरे..दांव पे ज़िन्दगी..
आ ओढ़ लें..रूह की दीवानगी..!!"
...
--कुछ ख़त जो भेज न पाए उन्हें..
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बेबाक हरारत..
4 ...Kindly express ur views here/विचार प्रकट करिए..:
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (30-11-2013) "सहमा-सहमा हर इक चेहरा" “चर्चामंच : चर्चा अंक - 1447” पर होगी.
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है.
धन्यवाद राजीव कुमार झा जी..
सादर आभार..!!
बहुत खूब।।
जय हिन्द
धन्यवाद सजन आवारा जी..!!
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