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"इक तेरा जिस्म..
इक मेरी रूह..
रूह का जिस्म..
जिस्म की रूह..
मेरा क्या..
सब कुछ तेरा..
तेरा क्या..
जो कुछ मेरा..
बंधन सदियों पुराना..
पुराना-सा इक बंधन..
पोर की गर्माहट..
गर्माते पोर..
सुलगती आहें..
आहों में सुलगती..
बाँहों की गिरफ़्त..
गिरफ़्त में बाँहें..
अर्धचक्र में ख़ुमारी..
ख़ुमारी से अर्धचक्र..
इक तुम जानो..
इक मैं जानूँ..!!!"
...
--बेइंतिहा मोहब्बत करते हैं हम आपसे..
7 ...Kindly express ur views here/विचार प्रकट करिए..:
वाह, चंद लफ़्ज़ों में क्या क्या केह दिया ...... फिर सोचते है ख़वाहिशों के क़ाफ़ले भी कितने अज़ीब होते है अक्सर वहीं से गुज़रते है जहाँ रास्ते नहीं होते .......!!! मगर
आपका लहजा , आपकी बातें अच्छी लगती है , आपका अंदाज़ , आपकी सोचें अच्छी लगती है ………कौन कहता है सिर्फ़ इशारों में मोहब्बत होती है …इन अल्फ़ाजों कि खूबसूरती को देखकर भी मोहब्बत हो सकती है ……हमे तो ये अल्फ़ाज़ों कि तारीफ़ के लिए अल्फाज़ नहीं मिलते ...........
धन्यवाद नयंक साब..
आभार..:-)
धन्यवाद यशवंत जी..
सादर आभार..!!!
बहुत खुबसूरत रचना अभिवयक्ति.........
"प्रेम गली अति सांकरी जा में दो न समाय" को साकार करती प्रेम समर्पित रचना ,,,
धन्यवाद सुषमा 'आहुति' जी..!!
धन्यवाद कविता रावत जी..!!!
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