Sunday, March 23, 2014

'रजनीगंधा..'




...


"रजनीगंधा का फूल..
अब तक महकता है..
उस उर्दू-हिंदी डिक्शनरी में..
हर बार उठाती हूँ..
शेल्फ से जब..
उंगलियाँ ख़ुद-ब-ख़ुद..
महसूस कर लेतीं हैं..
रूह तुम्हारी..

सफ़ेद पंखुरियाँ अब सफ़ेद कहाँ..
तेरी सौंधी खश्बू..
रेशे-रेशे में उतर आई है..

छप गयी है उस पन्ने पे..
तस्वीर तेरी..
पोर से बह चली हरारत कोई..

तेरी गिरफ़्त के जाम..
सुलगा रहे..'कैफ़ियत के दाम'..

लिखना-पढ़ना काफ़ूर हुआ..
मिलन जब उनसे यूँ हुआ..

हर्फ़ भुला रहे..राग़ सारे..
लुटा रहे..'हमारे दाग़' सारे..

शिराओं के ज़ख्म उभरने लगे..
तेरी छुअन को तरसने लगे..

हरी कहाँ अब..रजनीगंधा की डाली..
बेबसी दिखा रही..अदा निराली..

चले आओ..जां..
कागज़ को छू..
मुझे ज़िंदा कर दो..
भर दो..
महकती साँसें..
चहकती आहें..
पोर का सुकूं..
और..
इसकी सिलवटों में..
सिलवटें हमारी..!!"

...

--तुमको भी बहुत पसंद है न..रजनीगंधा की सौंधी सुगंध.. <3

8 ...Kindly express ur views here/विचार प्रकट करिए..:

Rajneesh Vishwakarma said...

आई कान्ट बिलीव इट. इतनी जल्दी बहुत हीं खूबसूरत कविता तैयार कर दी आपने।
तेरी सौंधी खश्बू..
रेशे-रेशे में उतर आई है..

खतरनाक :)

priyankaabhilaashi said...

सादर आभार रजनीश विश्वकर्मा जी..!!

राजीव कुमार झा said...

रजनीगंधा सी महक उभर आई है,इस कविता में.
बहुत सुंदर.

Mithilesh dubey said...

क्या बात है। लाजवाब प्रस्तुति।

priyankaabhilaashi said...

धन्यवाद राजीव कुमार झा जी..!!

priyankaabhilaashi said...

धन्यवाद मिथिलेश दुबे जी..!!

संजय भास्‍कर said...

क्या बात है ...

बहुत बहुत बधाई ... वैसे आपकी तो हर नज़्म ही लाजवाब होती है ..

बहुत अच्छा लगा पढ़के ...
लिखती रहिये ..
:)

priyankaabhilaashi said...

धन्यवाद प्रसन्ना बडन चतुर्वेदी जी..!!