Sunday, December 1, 2013
'तुम परिंदे हो..'
...
"ये कैसी सज़ा मुकरर की..
खबर थी तुम्हें..
तूफां के बेशुमार पैमाने छीलते हैं हर नफज़ रूह मेरी..
उधेड़ते हैं झूठे-फ़रेबी रिश्ते तहज़ीब के फेरे..
मलते हैं नमक नासूर पे..मौसम घनेरे..
जड़ते हैं ख्वाहिशों पे इल्ज़ाम हर सवेरे..
तुम भी चले गए तो..
बिखर जाएगा वज़ूद..
सुलग जाएगा हर अंग..
टपकेगी हर रात छत..
उखड़ेगी हर पल वक़्त की सुई..
खैर..
तुम परिंदे हो..
जहाँ मर्ज़ी जाना..
मानता हूँ तुम्हें..
चाहे भुला जाना..!!"
...
--संडेज़..वर्स्ट हिट्स..
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बेज़ुबां ज़ख्म..
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