Monday, January 6, 2014
'वादा-ए-उम्र..'
...
"सुनो, मुझे चाहना मुमकिन कहाँ..
टूटा दिल जुड़ना मुमकिन कहाँ..१..
तनहा हूँ..तनहा रहने दो..जो मिले तुम..
किनारों को उलटना मुमकिन कहाँ..२..
तुम जानते थे मजबूरियां..फ़क़त..
निभाना वादा-ए-उम्र मुमकिन कहाँ..३..
चले जाओ साकी..हासिल ख़ुशी..
मेरे कूचे..देखो..अब मुमकिन कहाँ..४..
अज़ीज़ रुक्सत..हम-जलीस ग़ैर..
आवारा नसीब..मोहब्बत मुमकिन कहाँ..५..!!"
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ग़ज़ल..
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उम्दा ग़ज़ल !
नई पोस्ट सर्दी का मौसम!
भावो का सुन्दर समायोजन......
धन्यवाद कालीपद प्रसाद जी..!!
धन्यवाद सुषमा 'आहुति' जी..!!
खूब .... उम्दा पंक्तियाँ रची हैं
धन्यवाद संजय भास्कर जी..!!
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