Wednesday, January 13, 2010
'हार गयी मैं..'
...
"आपको मैने अपना 'बच्चा' ही माना था..हर पल..
आपके सपनों को सच करने के लिए साथ देना चाहा..
थोड़ी मदद भी करी..
शायद..हार गयी मैं..
जितना दुलार..स्नेह..
मन के किसी कोने में दबा हुआ था..
स्वयं ही फूट एक धारा फूट पड़ी..
आपने कभी कहा क्यूँ नहीं..
यह दुलार..प्यार..अपनापन..स्नेह..सम्मान..पर्याप्त नहीं था..
मैं प्रयत्न करती..
सुधारने का हर संभव प्रयास करती..
इन आँखों से बहती हुई अश्रु-धारा..
न जाने किधर जा रही है..
शायद..उस राह पर जहाँ स्वयं से..
कुछ अनकहे प्रश्न रखे हैं..
हर किताब में समाए हुए..
उन अनगिनत शब्दों का सार यही है..
आज..हार गयी मैं..
उस माधुर्य को एकत्र कर..
मोतियों जैसा उज्ज्वल..
निर्मल..
ना रख पाई..
उन स्मृतियों को अंतर्मन में..
समावेष्ट ना कर पाई..
आज..हार गयी मैं.. ..
उन कमल के फूलों की पंखुड़ियों के समान..
आपके आँगन को सुशोभित नहीं कर पाई..
उस गगन में व्याप्त उपलब्धियों को..
आपके शौर्य अनुसार संजों नहीं पाई..
आज..हार गयी मैं..
उस चंचल..मुस्कान को..
काजल जैसा तेज नहीं दे पाई..
उस प्रचंड स्फूर्ति को..
इक दिशा भी ना दे पाई..
सच ही तो है..
आज..हार गयी मैं..
उस नदी में सिमटे हुए तत्वों को..
अनुचित स्थान ना दे पायी..
उस अदभुत बेला में नहाये हुए..
रंगों को अभिमंत्रित नहीं कर पाई ..
आज..हार गयी मैं..
उस जीवन की प्रक्रिया को..
सुन्दरता नहीं दे पायी..
उन पक्षियों की सुगबुहाटों को..
सरगम का स्वर ना दे पाई..
आज..हार गयी मैं..
उन पर्वतों की विशाल श्रृंखला को..
नमन भी ना कर पायी..
उस आम के वृक्ष की छाँव में..
खिलखिलाती जाड़े की धूप को..
अपना ना कर पायी..
आज..हार गयी मैं..
जड़-हीन हो गयी हूँ..मैं..
कोई चेतना नहीं रही..
स्वयं से घृणा भी हुई..
निर्माण ना हो सका..एक भविष्य का..
जहाँ कोई शंका..कुरीतियाँ ना हों..
सच..
आज..
हार ही गयी मैं.. !"
...
7 ...Kindly express ur views here/विचार प्रकट करिए..:
अरे नहीं हार ना मनिए , बढिया रचना । बधाई स्वीकार करें
धन्यवाद..!!
बहुत ही भावपूर्ण सवेंदना पूर्ण रचना , शायद अन्तर भावो को आप ने बहुत अच्छी तरह उतारा
आपकी लेखनी अदभुत है।
कभी मेरे दरवाजे पर भी दस्तक दीजिए
http://savitabhabhi36.blogspot.com
शुक्रिया सुजीत जी..!!
शुक्रिया सविता जी..!!
नमस्कार,
चिट्ठा जगत में आपका स्वागत है.
लिखते रहें!
[उल्टा तीर]
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