Wednesday, January 19, 2011
'बेबाक़ मंज़र की दास्तां..'
...
"मसरूफ रहते हैं जनाब..
देखते तक नहीं..
क्या गुनाह हुआ हमसे..
छेड़ते ज़िक्र तक नहीं..
मान लेते हैं ख़ता..
सुनिए..
बेबाक़ मंज़र की दास्तां अभी..
ना मिले जो शायर..
ग़ज़ल पूरी होती नहीं..!!"
...
Labels:
बस यूँ ही..
0 ...Kindly express ur views here/विचार प्रकट करिए..:
Post a Comment