Thursday, October 13, 2011
'महताब-ए-हरारत..'
शुक्रिया दी..'मेरे प्रेरणा-स्तोत्र'..!!!
इस रचना के मूल स्वरुप को निखारने के लिये..इस धातु को तपाने के लिये..
...
"कलम उठा..
जब लिखना चाहती हूँ..
रूह की बंज़र प्यासी रेतीली खुरदरी चट्टानों पे..
हर खलिश की जुबां..
क्यूँ मुमकिन नहीं..
करना बयां..
जो बसते हो..
साँसों में रवानी बन..
क्यूँ मिलते नहीं..
इक कहानी बन..
क्या खौफ है ज़माने का..
या..
नज़रों की नुमाइश से..
डरते हो..
क्या मोहब्बत रंगत नहीं..
क्या चाहत फितरत नहीं..
क्या गर्माहट सिलवट नहीं..
समंदर हो मेरे..
दराज़ मेरे..
लम्हे मेरे..
लिहाफ़ मेरे..
ना तौलो तुम..
रेज़ा-रेज़ा मेरी अंगड़ाई..
बन जाओ ना..
फ़क़त..
सफ़हा अक्स..
महताब-ए-हरारत..
मेरे..!!!"
...
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'दी..'
4 ...Kindly express ur views here/विचार प्रकट करिए..:
बहुत खूब....ऐसे ही तपो.....खूब निखरो ....बहुत चमको ...यही दुआ ...आज और हमेशा !!
बहुत ही सुन्दर....
बहुत खूबसूरत इल्तिजा ...
bahut badhiya likha hai
jai hind jai bharat
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