Monday, January 3, 2011
'दिव्य-दृष्टि का प्रसाद..'
...
"प्रतिबिम्ब प्रभु का..
आभामंडल गुरु का..
सुयोग्य शिष्य पर..
बरसता है..
सदैव..
दिव्य-दृष्टि का प्रसाद..
रखते नहीं..
सामर्थ्य सभी..
पा सकें..
पावन-निश्रा..
कर सकें..
जीवन व्यवस्थित..
हो सकें..
समर्पित..
समा सकें..
गुणों का भण्डार..
मिटा सकें..
अहंकारी स्वभाव..
हे मानव..
त्याग की मूरत ही..
निश्चल भक्ति का परिणाम..
जिससे होते..
सकल सब काज..!!"
...
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उपकार..
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bahut accha laga
बहुत सुन्दर और सार्थक सन्देश दिया कविता के माध्यम से लेकिन आज के इन्सान के पास भगवान के लिये समय ही कहाँ बस भौतिकी की भागमभाग मे लगा है। अच्छी रचना के लिये बधाई।
धन्यवाद निर्मला कपिला जी..!!
बढ़िया प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई.
ढेर सारी शुभकामनायें.
आप तक बहुत दिनों के बाद आ सका हूँ, क्षमा चाहूँगा,
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