ना जाने कितनी सर्द रातों और तपते दिनों में गम की स्याही सोख लेते थे..मेरे हर गम को यूँ ही समेट लेते थे.. आपकी आवाज़ का जादू कितनी ही बेवफाई और फ़रेब को नकाब पहना दफ्ना आई..
आज जब आप चले गए..दिल के दर्द कैसे रहगुज़र कर पाऊँगी..राहबर मेरे..चारागर मेरे..आप ही बताएं, कैसे जी पाऊँगी..
"पहाड़ियों में ढूँढ आई..
बचपन की सौगातें..
हँसी की फुहारें..
और..
मासूमियत की बौछारें..
खिलखिला रहा था..
आसमान का आँगन..
झिलमिला रहा था..
बादलों का आँचल..
जी आई..
आज फिर..
अमूर्त भावनाओं की..
अटूट निशानी..
जीवन की..
अमूल्य कहानी..!!!"